Wednesday 31 December 2014

सीएम की तरह उपलब्धि गिनाई आयोग के कामचलाऊ अध्यक्ष सैनी ने

सीएम की तरह उपलब्धि गिनाई आयोग के कामचलाऊ अध्यक्ष सैनी ने
एक वर्ष का कार्यकाल पूरा होने पर जिस तरह गत 13 दिसम्बर को राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जश्न मनाकर अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाई। ठीक उसी प्रकार राजस्थान लोक सेवा आयोग के कामचलाऊ अध्यक्ष डॉ. आर.डी सैनी ने भी 31 दिसम्बर को 100 दिन पूरा होने पर 31 दिसम्बर को पत्रकारों के समक्ष अपने कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाई। हालांकि सैनी ने सीएम राजे की तरह सौ दिन के कार्यकाल का कोई जश्न तो नहीं मनाया, लेकिन पत्रकारों के समक्ष यह दावा किया कि सौ दिन पहले सरकार ने जब उन्हें कामचलाऊ अध्यक्ष नियुक्त किया। तब आयोग के हालात बेहद बिगड़े हुए थे। यहां तक कि आयोग के अधिकारियों और कर्मचारियों का मनोबल भी गिरा हुआ था। ऐसे गंदे माहौल को उन्होंने सौ दिन में सुधार दिया। अब आयोग का कामकाज पटरी पर आने लगा है और परीक्षाएं भी समय पर करवाने के प्रयास हो रहे हैं। सैनी का दावा अपनी जगह है, लेकिन समझ में नहीं आता कि आखिर सैनी एक राजनीतिक दल की तरह अपनी उपलब्धियां कैसे गिनवा रहे हैं? आयोग में अध्यक्ष सहित सात सदस्यों का प्रावधान है, लेकिन इस समय आयोग में काम चलाऊ अध्यक्ष सैनी सहित मात्र तीन सदस्य हैं। सैनी क्या बता सकते हैं कि तीन सदस्य आयोग का काम पटरी पर कैसे ला सकते हैं? क्या सैनी सरकार को यह संदेश देना चाहते हैं कि यदि उन्हें स्थायी अध्यक्ष बना दिया जाए तो वे दो सदस्यों से ही आयोग का काम चला लेंगे?
सब जानते हैं कि सैनी की नियुक्ति गत कांग्रेस के शासन में हुई थी। सैनी तो प्रदेश की हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष थे, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मेहरबानी से सैनी आयोग के सदस्य के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त हो गए। सैनी ने अकादमी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्हीं किताबों को प्रकाशित करवाया जो कांग्रेस की विचारधारा की थीं। मालूम हो कि हिन्दी ग्रंथ अकादमी अपने खर्चे पर प्रदेश के साहित्यकारों की किताबों का प्रकाशन किया है। शायद अब भाजपा सरकार की मिजाजपुर्सी करके सैनी आयोग का स्थायी अध्यक्ष बनना चाहते हैं। आयोग के कामकाज से प्रदेशभर के युवा कितने परेशान हैं। इसका अंदाजा शायद सैनी को नहीं है। प्रतिवर्ष होने वाली परीक्षाएं भी चार-चार वर्षों से नहीं हो पाई है। जिन परीक्षाओं के परिणाम घोषित किए गए हैं उन्हें भी बार-बार अदालतों में चुनौती दी जा रही है। पता नहीं किस सोच के साथ सैनी अपनी उपलब्धि गिनवा रहे है, जबकि सैनी ने भी उन्हीं हबीब खां गौराण के साथ काम किया, जिनकी तलाश अब एसओजी कर रही है। क्या सैनी को नहीं पता था कि गौराण के कार्यकाल में आयोग में क्या-क्या हो रहा है। यदि गौराण ने परीक्षाओं और प्रश्न पत्रों में कोई गड़बड़ी की तो सैनी भी सदस्य होने के नाते अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। अच्छा होता कि गौराण के फंसने के बाद सैनी भी सदस्य के पद से इस्तीफा देकर अपने धर चले जाते। सैनी को प्रदेश के उन बेरोजगार युवाओं की पीड़ा को समझना चाहिए जो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। अपनी उपलब्धि गिनाने की बजाए सैनी को कम से कम इतना तो करना ही चाहिए था कि सरकार से आयोग में सदस्यों के साथ-साथ अधिकारियों और कर्मचारियों की भर्ती की मांग करते।
-(एस.पी.मित्तल)(spmittal.blogspot.in)

अखिलेश और ममता की सीएमगिरी

अखिलेश और ममता की सीएमगिरी
यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की 31 दिसम्बर को सीएमगिरी देखने को मिली। अभिनेता आमिर खान की जिस पीके फिल्म को लेकर हिन्दूवादी संगठन देशभर में धरना प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं, उसी पीके फिल्म को अखिलेश यादव ने यूपी में टैक्स फ्री घोषित कर दिया है। हिन्दूवादी संगठनों का कहना है कि पीके फिल्म में हिन्दू धर्म का माजक उड़ाया गया है। इस फिल्म पर रोक लगाने की मांग की जा रही है, लेकिन अखिलेश यादव ने जले पर नमक छिड़कने वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए फिल्म को ही टैक्स फ्री कर दिया है ताकि हिन्दू धर्म का मजाक उड़ते हुए ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकें। सब जानते हैं कि अखिलेश ने राजनीतिक कारणों से यूपी में इस फिल्म को टैक्स फ्री घोषित किया है। अखिलेश के इस निर्णय के पीछे यूपी के ताकतवर मंत्री आजम खान का हाथ बताया जा रहा है। आजम खान पहले भी हिन्दूवादी संगठनों पर प्रतिकूल टिप्पणियां कर चुके हैं। पीके फिल्म का विरोध सही है या गलत इसका निर्णय फिल्म सेंसर बोर्ड को करना है। सरकार ने संविधान के अंतर्गत सेंसर बोर्ड का गठन कर रखा है। 31 दिसम्बर को बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी केन्द्र सरकार को खुली चुनौती दी है। भूमि अधिग्रहण कानून को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार जो अध्यादेश ला रही है, उस पर ममता ने तीखी टिप्पणी की है। ममता ने कहा है कि अध्यादेश के बाद भी बंगाल में यह कानून लागू नहीं होगा और यदि इस कानून को जबरन लागू करने की कोशिश की गई तो केन्द्र सरकार को पहले उनकी लाश पर से गुजरना होगा। यानि ममता ने साफ कर दिया है कि वह केन्द्र सरकार के नियम कायदे को नहीं मानेगी। ममता ने जिस प्रकार केन्द्र को चुनौती दी है। उससे केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकारों पर एक बार फिर विवाद खड़ा हो गया है। ममता का इससे पहले भी केन््रद के साथ टकराव होता रहा है। हालांकि अभी तक भी केन्द्र की ओर से बंगाल के खिलाफ कोई सख्त रवैया अपनाया गया है। ममता बनर्जी जहां बांग्लादेश से आए नागरिकों को बंगाल में बसाए रखना चाहती है, वहीं केन्द्र का प्रयास है कि विदेशी नागरिकों को बंगाल से बाहर निकाला जाए। इस मुद्दे को लेकर भी बंगाल में कई बार हिंसक घटनाएं हो चुकी है।
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तो कश्मीर में नहीं बन सकेगा हिन्दू सीएम

तो कश्मीर में नहीं बन सकेगा हिन्दू सीएम
भारत के संविधान में यह कहीं भी नहीं लिखा गया है कि जम्मू-कश्मीर में हिन्दू सीएम नहीं बन सकता, लेकिन देश के राजनेताओं ने आज जम्मू-कश्मीर के जो हालात कर दिए हैं, उसमें बिना लिखे ही अब जम्मू-कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री नहीं बन सकता। 31 दिसम्बर को पीडीपी के नेता महबूबा मुफ्ती ने राज्यपाल एन.एन. वोहरा से मुलाकात की। राज्यपाल को बताया गया कि विधानसभा की 87 में से 55 नवनिर्वाचित विधायक उनके साथ है। इसमें पीडीपी के 28 विधायक तो हैं ही साथ ही एनसी के 12 के साथ-साथ कांग्रेस और निर्दलीय विधायक भी हैं। राज्यपाल से कहा गया कि अब सरकार बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित किए जाए। राज्यपाल से मिलने से पहले महबूबा मुफ्ती ने खुलेआम ऐलान किया था कि भाजपा के हिन्दू मुख्यमंत्री को रोकने के लिए जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक दलों का महागठबंधन बनाया जा रहा है। चुनाव के दौरान महबूबा ने भले ही एनसी और कांग्रेस को गालियां दी, लेकिन हिन्दू मुख्यमंत्री को रोकने के लिए अब महबूबा उन्हीं दलों का समर्थन ले रही है। इससे भाजपा के अरमानों पर पानी फिर गया है। पीएम नरेन्द्र मोदी का भरसक प्रयास था कि इस बार किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर में भाजपा के गठबंधन की सरकार बने। इसके लिए मोदी ने न केवल जमकर चुनाव प्रचार किया। बल्कि परिणाम के बाद यह भी घोषणा की कि भाजपा अब पीडीपी के साथ मिलकर भी सरकार बनाने को तैयार है। चुनाव में भाजपा ने मिशन 44 को सपना देखा जो मात्र 25 पर आकर रुक गया। 87 सीटों में से 25 पर ही भाजपा के उम्मीदवारों की जीत हुई। हालांकि भाजपा ने कश्मीर में रिकॉर्ड जीत हासिल की, लेकिन सरकार नहीं बना सकी। सवाल यह नहीं है कि कश्मीर में भाजपा की सरकार नहीं बनी। महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि जम्मू-कश्मीर में जो राजनीतिक हालात उत्पन्न हुए हैं। उनका देश की राजनीति पर कितना असर पड़ेगा। धारा 370 की वजह से जम्मू-कश्मीर देश से पहले ही अलग नजर आता है और इस बार भाजपा जैसे राजनीतिक दल को 25 सीटें मिली तब भी भाजपा गठबंधन की सरकार नहीं बना सकी। उल्टे भाजपा को रोकने के लिए कश्मीर के सभी राजनीतिक दल एकजुट हो गए। जो लोग साम्प्रदायिक सद्भावना की बात करते हैं, वो बताए कि जिस राजनीतिक दल की  केन्द्र में पूर्ण बहुमत के  साथ सरकार है, उस दल को कश्मीर में अछूता क्यों माना जा रहा है? क्या इससे साम्प्रदायिकता नहीं झलकती? यदि कश्मीर जैसी राजनीति देशभर में होने लगेगी तो फिर देश के हालातों का अंदाजा लगाया जा सकता है। आमतौर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक को हिन्दूवादी संगठन माना जाता है, लेकिन इस बार कश्मीर में संघ ने भी अपनी छवि में बदलाव का प्रयास किया है। हाल ही में संघ से निकल कर भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री बने राममाधव ने स्वयं कश्मीर में जाकर भाजपा की कमान संभाली। परिणाम के बाद स्थाई सरकार की चिंता करते हुए राममाधव ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का प्रस्ताव तक रख दिया। लेकिन इसके बावजूद भी कश्मीर में सरकार नहीं बन रही। क्या कश्मीर के ताजा हालातों से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हिन्दू-मुस्लिम विचारधारा आमने-सामने खड़ी है।
-(एस.पी.मित्तल)(spmittal.blogspot.in)

Tuesday 30 December 2014

पंचायत चुनाव में दसवीं की फर्जी मार्कशीट की आशंका

पंचायत चुनाव में दसवीं की फर्जी मार्कशीट की आशंका
बोर्ड के पास नहीं है 1971 के पहले का रिकॉर्ड
पंचायती राज चुनाव में उम्मीदवार के आवेदन के साथ दसवीं की फर्जी मार्कशीट प्रस्तुत करने की आशंका बढ़ गई है। सरकार ने हाल ही में जो निर्णय लिया है, उसके अनुसार जिला परिषद और पंचायत समिति के सदस्य के लिए दसवीं कक्षा उत्तीर्ण होना अनिवार्य है। प्रदेशभर में अजमेर स्थित राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ही दसवीं और बारहवीं की परीक्षा आयोजित करता आ रहा है। शहरी क्षेत्रों में तो अब सीबीएसई बोर्ड से भी विद्यार्थी परीक्षा देने लगे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी सरकारी स्कूलों के माध्यम से ही राजस्थान शिक्षा बोर्ड से ही दसवीं और बारहवीं की परीक्षा दी जाती है। चूंकि सरकार ने पंचायतीराज चुनाव में जिला परिषद और पंचायत समिति सदस्य के लिए दसवीं तक शिक्षित होना अनिवार्य कर दिया है। इसलिए चुनाव लडऩे के इच्छुक लोग माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अजमेर कार्यालय में दसवीं की मार्कशीट निकलवा रहे है, जिन लोगों ने 1971 के बाद परीक्षा दी है। उन्हें तो शिक्षा बोर्ड डुप्लीकेट मार्कशीट दे रहा है, लेकिन जिन लोगों ने 1971 से पहले परीक्षा दी, उन्हें बोर्ड ने डुप्लीकेट मार्कशीट देने से इंकार कर दिया है। बोर्ड का कहना है कि 1971 से पहले ही परीक्षाओं का सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिया गया है। इसलिए बोर्ड की ओर से अब डुप्लीकेट मार्कशीट अथवा उत्तीर्णता का प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता। इससे जहां हकीकत में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को भी मार्कशीट आदि के डुप्लीकेट दस्तावेज नहीं मिल रहे हैं। वहीं चुनावों में फर्जी मार्कशीट प्रस्तुत करने की आशंका भी बढ़ गई है। जो उम्मीदवार 1971 से पहले की मार्कशीट प्रस्तुत करेगा, उसकी सत्यता की जांच अब कैसे होगी। शिक्षा बोर्ड तो उपलब्ध रिकॉर्ड के आधार पर 1971 के बाद के दस्तावेजों की ही जांच कर सकता है, यदि किसी उम्मीदवार ने अपनी उम्र के हिसाब से 1971 से पहले ही फर्जी मार्कशीट प्रस्तुत कर दी तो निर्वाचन विभाग के पास मार्कशीट की जांच करने की कोई एजेंसी नहीं है। राज्य सरकार और निर्वाचन विभाग ने अभी तक भी इस मामले में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की है। संबंधित निर्वाचन अधिकारियों के समक्ष भी यह समस्या रहेगी कि 1971 से पहले की मार्कशीट की जांच कैसे हो? कांग्रेस और अन्य राजनेता पहले ही शिक्षा की अनिवार्यता का विरोध कर रहे है, जब आठवीं की परीक्षा को लेकर ही विवाद हो रहा है, तो फिर दसवीं उत्तीर्ण उम्मीदवारों को तलाशना तो राजनीतिक दलों के लिए बेहद मुश्किल होगा। ऐसे में फर्जी मार्कशीट प्रस्तुत करने की आशंका बढ़ गई है। प्रशासन और निर्वाचन विभाग के लिए भी 1971 से पहले की मार्कशीट को फर्जी करार देना बेहद मुश्किल होगा। शिक्षा बोर्ड प्रशासन ने स्वीकार किया है कि उनके पास 1971 से पहले की मार्कशीट लेने के अनेक आवेदन जांच के लिए प्राप्त हुए हैं, लेकिन बोर्ड की ओर से ऐसी मार्कशीट जारी नहीं की जाएगी। जब बोर्ड के पास ही परीक्षा परिणाम का रिकॉर्ड ही उपलब्ध नहीं है, तो फिर मार्कशीट की जांच भी नहीं की जा सकती है।
-(एस.पी.मित्तल)(spmittal.blogspot.in)

आईपीएस राजेश मीणा की बहाली के मायने

आईपीएस राजेश मीणा की बहाली के मायने
सवाल यह नहीं है कि राजेश मीणा को फिर से आईपीएस के पद पर बहाल कर दिया गया है। सवाल यह है कि आखिर राजेश मीणा को किसने बहाल किया? राजस्थान के मतदाता को याद होगा कि गत विधानसभा चुनाव से पहले जब वसुंधरा राजे सुशासन यात्रा निकाली थी। तब जगह-जगह आम सभाओं में कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार पर जोरदार हमला बोला। भ्रष्टाचार के जो मामले गिनाए गए उसमें सबसे पहले अजमेर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक राजेश मीणा के भ्रष्टाचार का मामला गिनाया गया। वसुंधरा राजे ने चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि कांग्रेस के राज में एसपी स्तर का अधिकारी पुलिस थानों से मंथली लेते हुए पकड़ा गया। एसीबी राजेश मीणा को सरकारी निवास से ही एक दलाल के माध्यम से मंथली वसूली की राशि प्राप्त करते हुए गिरफ्तार किया था। वसुंधरा राजे जिस अंदाज में भाषण देती है। उसका असर मतदाताओं पर पड़ता है। राजेश मीणा के भ्रष्टाचार के मामले का असर भी मतदाताओं पर पड़ा। यही वजह रही कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया और वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री बन गई। अब उन्हीं वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री की हैसियत से राजेश मीणा को एक बार फिर आईपीएस की कुर्सी पर बैठा दिया है। अब राजेश मीणा न केवल आईपीएस की वर्दी पहनकर अजमेर व राजस्थान भर में घुम सकेंगे, बल्कि उनके खिलाफ अजमेर में एसीबी की अदालत में भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है। उसमें भी गवाहों आदि को प्रभावित करेंगे। अब तक इस मामले में जितने भी गवाह पेश हुए वो सभी अपने पुलिस बयानों से मुकर चुके हैं। यह तब हुआ जब राजेश मीणा निलंबित थे। अब तो वसुंधरा राजे ने मीणा को आईपीएस के पद पर नियुक्ति दे दी है। थानाधिकारियों से राजेश मीणा ने मंथली वसूली या नहीं इसका फैसला तो न्यायालय करेगा, लेकिन यहां सवाल उठता है कि वसुंधरा राजे ने विधानसभा चुनाव के दौरान मीणा का मुद्दा क्यों उछाला? चुनाव में जब मीणा के मामले को कांग्रेस सरकार का भ्रष्टाचार बताया जा सकता है तो विजयी सरकार क्या संदेश देना चाहती है। यह वसुंधरा राजे को बताना चाहिए। क्या वसुंधरा ने मान लिया है कि राजेश मीणा निर्दोष है। क्या अब भाजपा की सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई अभियान चला सकती है। अच्छा हो इस मामले में वसुंधरा बताए कि किन परिस्थितियों में मीणा को बहाल किया गया है? जहां तक मीणा की बहाली का मामला है, तो हो सकता है कि डीआईजी के पद पर पदोन्नति भी कर दिया जाए।
-(एस.पी.मित्तल)(spmittal.blogspot.in)

Sunday 28 December 2014

टीवी चैनल अब क्यों दिखा रहे है रॉक स्टार बाबा के चमत्कार

टीवी चैनल अब क्यों दिखा रहे है रॉक स्टार बाबा के चमत्कार
देश के जब किसी बाबा के पापों का भंडाफोड़ होता है तो सबसे पहले टीवी न्यूज चैनल ही हो-हल्ला मचाते हैं। अपनी रिपोर्ट में अनुयायियों को ही दोषी ठहराते हैं। जहां तक बाबाओं की शरण मेें जाने वाले राजनेताओं को भी कोसा जाता है। एक भी चैनल यह नहीं कहता कि बाबा के प्रति आम लोगों का आकर्षण पैदा करने के लिए वे स्वयं भी जिम्मेदार हैं। इन दिनों अधिकांश न्यूज चैनलों पर डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम के इंटरव्यू प्रसारित हो रहे हैं। इस इंटरव्यू में बाबा के चमत्कारों का बखान किया जा रहा है। क्या यह आप लोगों के बीच बाबा का महिमामंडन नहीं है? ऐसे चमत्कारिक इंटरव्यू देखकर ही तो लोग बाबाओं के प्रति आकर्षित होते हैं। असल में जो इन्टरव्यू प्रसारित हो रहे हैं उन्हें बाबा राम रहीम ने पैसे देकर तैयार करवाया है। बाबा की एक फिल्म रिलीज होने जा रही है। इस फिल्म के लम्बे विज्ञापन टीवी चैनलों को दिए गए हैं। विज्ञापन के नाम पर मोटी रकम वसूलने वाले चैनल ही बाबा के चमत्कारिक इंटरव्यू दिखा रहे हैं। बाबा विज्ञापन इसलिए दे रहे है ताकि उनकी फिल्म ज्यादा से ज्यादा लोग देखे। यह फिल्म भी बाबा के चमत्कारों से भरी है। जब लोग फिल्म में बाबा के चमत्कार देखेंगे तो स्वाभाविक ही अनुयाइयों की संख्या और दान की राशि बढ़ेगी ही। यानि सब लोग अपना-अपना धंधा कर रहे हैं। किसी को भी उस आदमी की चिंता नहीं है जो वाकई में सच जानना चाहता है। जहां तक बाबा राम रहीम का सवाल है तो वे हमेशा से ही विवादों में रहे हैं। स्वयं को भगवान मानने वाले इस बाबा ने अपनी फिल्म में स्वयं अभिनय किया है। अब तक तो फिल्मों में भगवान के प्रतीक ही चमत्कार करते थे, लेकिन अब तो स्वयं जिंदा भगवान ही चमत्कार करते नजर आएंगे। टीवी चैनल वाले बता सकते हैं कि आप लोगों को भ्रम में क्यों डाला जा रहा है, जबकि विवादों की वजह से ही सीबीआई ने बाबा के खिलाफ जांच भी शुरू कर दी है। सब जानते है कि जो चैनल निर्मल बाबा के आधे घंटे के कार्यक्रम को विज्ञापन के रूप में प्रकाशित करते हैं उन्हें अपने दर्शकों से कोई सरोकार नहीं है। बाबा भी अब चैनल वालों को समझ गए है। पैसा दो, तमाशा दिखाओ।
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बाबा रामदेव भी आए पीके के खिलाफ

बाबा रामदेव भी आए पीके के खिलाफ
जोशी और द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के बाद अब योग गुरु बाबा रामदेव ने भी आमिर खान की फिल्म पीके में हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं के खिलाफ बताया है। बाबा ने कहा कि किसी भी फिल्म में किसी धर्म का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। पीके फिल्म में हिन्दू देवी-देवताओं पर प्रतिकूल टिप्पणियां करना उचित नहीं है और फिर आमिर खान जैसे अभिनेता को तो यह शोभा नहीं देता। असल में पीके को लेकर शुरू से विवाद रहा है। आलोचनाओं में यहां तक कहा गया है कि फिल्मकारों को सिर्फ हिन्दू धर्म में ही बुराइयां क्यों नजर आती है? हाल ही में पाकिस्तान के पेशावर के आर्मी स्कूल में तालिबान के लड़ाकों ने धर्म की आड़ लेकर ही 132 मासूम बच्चों की हत्या कर दी। सवाल उठता है कि आखिर हत्यारों ने कौन से धर्म की शिक्षा लेकर ऐसा घृणित कार्य किया? असल धर्म कोई बुरा नहीं होता। अपनाने वाले कुछ लोग बुरे होते हैं। यदि जागरुकता के लिए धर्म के पाखंड को उजागर किया जाए तो फिर सभी धर्मों को एक नजर से देखना चाहिए। आमिर खान जिस धर्म को मानते हैं उस धर्म की कमियां उजागर की जाए। एक धर्म को निशाना बनाकर मजाक उड़ाना उचित नहीं कहा जा सकता और फिर आमिर खान ने तो सामाजिक बुराईयों के प्रति अभियान चला रखा है। अच्छा हो कि आमिर खान अपने मुस्लिम सामज में व्याप्त बुराइयां भी फिल्मी पर्दे पर लाएं। पीके को लेकर आमिर की जो आलोचना हो रही है, उसका जवाब आमिर अपनी अगली फिल्म में दे सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आमिर एक सफल और अच्छे अभिनेता हैं। उन्हें अपना संदेश आम लोगों तक प्रभावी तरीके से पहुंचाना आता है। समाज के सभी वर्ग आमिर का सम्मान करते हैं। इसका ताजा उदाहरण फिल्म पीके की रिकॉर्ड सफलता है। हिन्दू विरोधी फिल्म करार दिए जाने के बाद भी देशभर के लोगों ने फिल्म को देखा। आमिर को भी लोगों की भावनाओं के अनुरूप फिल्मों में कार्य करना चाहिए।
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Saturday 27 December 2014

कश्मीर में क्यों हो रही है हिन्दू-मुसलमान की राजनीति

कश्मीर में क्यों हो रही है हिन्दू-मुसलमान की राजनीति
सवाल यह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में कौन मुख्यमंत्री बनेगा? अह्म सवाल यह है कि आखिर कश्मीर में हिन्दू-मुसलमान की राजनीति क्यों हो रही है? जब हम भारत को धर्मनिरपेक्ष देश मानते हैं और कहते हंै कि भारत में किसी भी धर्म का व्यक्ति अपने धर्म के अनुरुप जीवन यापन कर सकता है तो फिर भारत के ही अभिन्न अंग कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री से परहेज क्यों किया जा रहा है? कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री न बने इसके लिए मुस्लिम राजनैतिक दल माने जाने वाले सभी एकजुट हो रहे हैं। सवाल भाजपा और पीडीपी का भी नहीं है, सवाल तो कश्मीर में हिन्दू मुस्लिम राजनीति का है। जिस राजनैतिक दल का व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बना हुआ है उसी दल के व्यक्ति को कश्मीर में मुख्यमंत्री बनने से इसलिए रोका जा रहा है कि वह हिन्दू है। क्या कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री बन जाना कोई अपराध है या संविधान में प्रतिबंध लगा हुआ है। भारतीय संविधान की दुहाई देकर ही पूरे देश में करोड़ों लोग अपने धर्म के अनुरुप जीवन यापन कर रहे हैं तो फिर कश्मीर में साम्प्रदायिक सद्भावना की पहल क्यों नहीं की जा रही। क्या मुस्लिम मुख्यमंत्री बनने पर ही कश्मीर में साम्प्रदायिक सद्भावना बनी रहेगी। यदि हिन्दू मुख्यमंत्री बन गया तो क्या कश्मीर में साम्प्रदायिकता हो जाएगी। देश के अन्य प्रांतों में यह अपेक्षा की जाती है कि साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए बड़े से बड़ा त्याग किया जाए। कई बार स्वयं को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए अपने ही लोगों की राजनैतिक बलि दे दी जाती है, लेकिन विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद कश्मीर में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। इसके उलट हिन्दू और मुस्लिम राजनीति एकदम आमने-सामने हो गई है जो लोग धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सद्भावना की बात करते हैं वे बताएं कि कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता। क्या धर्मनिरपेक्षता के किसी भी झण्डाबरदार ने अभी तक कश्मीर में साम्प्रदायिक सद्भावना की बात कही है। मैंने देश की हिन्दू और मुस्लिम की राजनीति पर बेबाक टिप्पणियां की है और इस बार भी मैं कश्मीर की राजनीति पर देश की असली हकीकत को बार-बार सामने रख रहा हूं। आजादी के बाद यह पहला अवसर है जब कश्मीर में सही मायने में साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल देने का मौका आया है। राजनैतिक दल जाति और धर्म के अनुरुप अपने उम्मीदवारों का चयन करते हैं। मैं कोई भाजपा का पक्षधर नहीं हूं लेकिन कश्मीर के जो हालात हैं उसमें हिन्दू और मुसलमानों के बीच खिंचाव होना देश के लिए घातक होगा। यदि भाजपा के हिन्दू मुख्यमंत्री को रोकने के लिए पीडीपी, एनसी और कांग्रेस एक जुट होती है तो यह बेहद गंभीर बात है। जहां तक भाजपा का सवाल है तो वह भी देश के अन्य राजनैतिक दलों की तरह ही एक दल बनकर रह गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकल कर भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री बने राममाधव ने भी कह दिया है कि उनका मकसद कश्मीर में स्थाई सरकार देना है। यानि कश्मीर में देशहित में जो होना चाहिए उससे भाजपा पीछे हट गई है, इसलिए पीडीपी से समर्थन लिया और दिया जा रहा है जिसको चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक ने गालियां दी। बाप-बेटी की सरकार कह कर मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती की कड़ी आलोचना की गई। कथित स्थाई सरकार के चक्कर में भाजपा कश्मीर में वो सब कर रही है जिसका अब तक विरोध करती रही। यदि पीडीपी, एनसी और कांग्रेस के सहयोग से सरकार नहीं बना सकी तो फिर पीडीपी भाजपा का समर्थन लेकर सरकार बनाएगी। यदि भाजपा पीडीपी की हर शर्त को स्वीकार कर लेगी। भाजपा से भी यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर कश्मीर में स्थाई सरकार की चिन्ता उसे ही क्यों ज्यादा है? क्या यह चिन्ता पीडीपी और एनसी को नहीं है? कश्मीर में हालत पहले से ही बद से बदतर हो गए है। यदि अभी भी कोई सुधार नहीं हुआ तो कश्मीर को भारत में बनाए रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा। जो लोग हिन्दू मुसलमानों में भाईचारे और सद्भावना की बात कहते हैं उन्हें कश्मीर में हो रही राजनीति पर गहनता के साथ विचार करना चाहिए।
(एस.पी. मित्तल)
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