Wednesday 9 September 2015

बिहार में ऐसे चुनाव का क्या फायदा

निर्वाचन आयोग ने 9 सितम्बर को बिहार में चुनाव की तिथियां घोषित कर दी है। पांच चरणों में होने वाले चुनाव की पहली अधिसूचना 16 सितम्बर को जारी होगी और 5 नवम्बर को अंतिम चरण का मतदान हो जाएगा। 8 नवम्बर को मतगणना होगी। लोकतंत्र में चुनाव को पुण्य कार्य माना गया है। यह माना जाता है कि जनता जिस प्रतिनिधि को चुनेगी वह ईमानदार, चरित्रवान, व्यवहार कुशल और सेवाभावी होगा। बदमाश और अपराधी किस्म के व्यक्तियों को जनता हरा देगी, लेकिन 9 सितम्बर को मुख्य चुनाव आयुक्त ने जो सुरक्षा इंतजाम गिनाए, उससे प्रतीत होता है कि बिहार में ईमानदार चरित्रवान, व्यवहार कुशल, सेवाभावी आदि गुणों का चुनाव नहीं हो रहा है, बल्कि बूथ लूटने वाले, फायरिंग करने वाले और सरकार के सुरक्षा इंतजामों को चुनौती देने वालों का चुनाव हो रहा है। इसलिए आयोग ने घोषणा की कि सीआरपीएफ के दम पर बिहार का चुनाव करवाया जाएगा, मतदान केन्द्रों की निगरानी हेलीकॉप्टर और मोटर बोट के माध्यम से होगी।
जिन लोगों के पास लाइसेंस वाले हथियार है, उनके हथियार भी जमा करवा लिए जाएंगे। सभी मतदान केन्द्रों पर सीआरपीएफ के सशस्त्र जवान तैनात होंगे। सब जानते हैं कि सीआरपीएफ को आधी सेना माना जाता है। सीआरपीएफ का इस्तेमाल गंभीर परिस्थितियों में होता है। सीआरपीएफ का इस्तेमाल करने का मतलब यह भी है कि बिहार की पुलिस नकारा हो गई है, जिन परिस्थितियों में बिहार के चुनाव होंगे, उसमें कैसे विधायक चुने जाएंगे। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है, आयोग स्वयं मानता है कि बिहार के 38 में से 29 जिले नक्सल प्रभावित हंै। सवाल उठता है कि बिहार में लोकतंत्र क्या मायने रखता है, जब हम बिहार पुलिस और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे चुनाव नहीं करवा सकते, तो फिर सरकार बनने के बाद क्या गारंटी है कि सेवा भावी विधायक चुने जाएंगे। सवाल किसी एक राजनीतिक दल का नहीं है। सवाल यह है कि आखिर बिहार के इन हालातों का जिम्मेदार कौन है। बिहार देश के अन्य राज्यों के मुकाबले पहले ही पिछड़ा हुआ है। यदि बिहार में ईमानदार और सेवाभावी सरकार भी नहीं चुनी जा सकती है तो फिर बिहार में विकास का दावा करना बेमानी है।
(एस.पी. मित्तल)(spmittal.blogspot.in)M-09829071511

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