Wednesday 30 December 2015

बच्चे के जन्म के साथ ही मिट्टी और पत्थरों से भरी तगारियां उठानी पड़ती है मां को।


केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती मेनका गांधी ने श्रम मंत्रालय से कहा है कि निजी संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को भी छह माह का मातृत्व अवकाश देने का कानून बनाया जाए। वर्तमान में निजी संस्थानों में मात्र तीन माह के अवकाश का ही प्रावधान है। यानि कंपनियों में काम करने वाली कोई महिला बच्चे को जन्म देती है तो उसे 6 माह का अवकाश दिया जाएगा। इस अवधि में मालिक को पूरा वेतन देना पड़ेगा। ऐसी सुविधा सरकारी संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को मिलती है। श्रीमती मेनका गांधी ने जो प्रस्ताव रखा है, वह मेरी समझ से परे हैं। मेनका गांधी ने सिर्फ उन कामकाजी महिलाओं की चिंता की है जिनका प्रतिशत मुश्किल से पांच होगा। मेनका गांधी ने ग्रामीण क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिले, इस पर चिंता नहीं जताई है। हम अपने आस-पड़ौस और शहरी क्षेत्रों में देखते हैं कि जब कोई सड़क खोदी जाती है तो उसमें महिला श्रमिकों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इसी प्रकार जब कोई बहुमंजिला इमारत निर्माणाधीन होती है, तब भी हमें यही कामकाजी महिलाएं नजर आती हैं। हम रोज देखते हैं कि गरीब और जरुरतमंद महिलाएं बच्चा जनने के साथ ही अपने सिर पर पत्थर और मिट्टी से भरी तगारियां रखकर इधर-उधर ले जाती हंै। शायद मेनका गांधी भी अपने संसदीय क्षेत्र में अपनी आंखों से देखती होंगी कि ऐसी महिला श्रमिक निर्माण स्थल पर ही अपने एक दो माह के शिशु को बीच-बीच में दूध भी पिलाती है। इस बेचारी महिला को बच्चा जनने के बाद पर्याप्त खाद्य सामग्री भी नहीं मिल पाती है। लेकिन हमारी इस महिला की हिम्मत देखिए कि बच्चा जनने के दस-बीस दिन पहले तक और बच्चा जनने के मुश्किल से दस दिनों बाद ही पत्थर और मिट्टी ढोने का काम करती है। यदि देश में जांच की जाए तो 80 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं बिना मातृत्व अवकाश के काम करती हैं। यदि मेनका गांधी को कामकाजी महिलाओं की इतनी ही चिंता है तो उन्हें ग्रामीण क्षेत्र की महिला श्रमिकों के बारे में चिंता करनी चाहिए। निजी कंपनियों में तो काम करने वाली महिलाओं को हजारों में नहीं, लाखों में प्रतिमाह वेतन मिलता है, जबकि ठेकेदार के यहां काम करने वाली महिला श्रमिक को दिन भर में मुश्किल से 300 रुपए मिल पाते हैं। लाखों महिला श्रमिकों को निर्माण स्थल पर ही झौंपड़ी बनाकर रहना होता है। 

(एस.पी. मित्तल)
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