Monday 15 February 2016

ख्वाजा के दर पर आया वसंत



दरगाह में निभाई गई अमीर खुसरो की परम्परा
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अजमेर स्थित सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल माना जाता है। देश के धार्मिक स्थलों पर चाहे कैसा भी माहौल हो लेकि न दरगाह में जियारत के लिए मुसलमान ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या में हिन्दू भी आते है। दरगाह में ऐसी अनेक रस्में होती है जो भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई है। इसी में से एक है बसंत उत्सव मनाया जाना। हिन्दू तिथि के लिहाज से गत 12 फरवरी को देशभर में बसंत उत्सव मनाया गया लेकिन दरगाह में बसंत उत्सव मनाने की परम्परा मुस्लिम महारबी-उल-कादिर की 5 तारीख को है। यही वजह रही कि दरगाह में 15 फरवरी को उत्साह और उमंग के साथ बसंत पर्व मनाया गया। दरगाह के शाही कव्वाल अशरार हुसैन के बीमार होने की वजह से उनके पुत्र असलम हुसैन और अमजद हुसैन ने हाथो में पीले फूलों का गुलदस्ता लेकर अमीर खुसरो के कलाम गाए। हुसैन बंधुओं ने जब आज बसंत मना ले सुहागिन नाजो अदा से झूम लो, ख्वाजा की चौखट, चूम लो, बसंत फूलों के गड़वें हाथ ले, गाना बजाना साथ ले, क्या खुशी और ऐश की सामान आती है, बसंत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के घर आती है के शब्द बोले तो दरगाह में माहौल खुशनुमा हो गया। बसंत उत्सव के इस मौके पर दरगाह दीवान सैयद जेनुअल आबेदीन के पुत्र और दीवान पद के उत्तराधिकारी सैयद नजमुद्दीन भी उपस्थित रहे। इस अवसर पर दरगाह के खादिम और बड़ी संख्या में अकीदतमंद भी उपस्थित थे। सैयद नजमुद्दीन ने बताया कि ख्वाजा साहब ने अपने जीवनकाल में कभी भी हिन्दू और मुसलमानों में भेद नहीं किया। इसलिए आज इस दरगाह को साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल माना जाता है। उन्होंने कहा कि आतंकवादी जो हत्याएं कर रहे है वे इस्लाम के खिलाफ है। इससे इस्लाम धर्म की छवि भी खराब हो रही है। हम जब ख्वाजा साहब की दरगाह में बसंत उत्सव मनाते है तो फिर आतंकवादी ऐसी वारदाते क्यों करते हैं, जिनकी वजह से हिन्दू और मुसलमानों के बीच तनाव होता है। खादिमों की संस्था अंजुमन के सचिव वाहिद हुसैन अंगारा का कहना था कि दरगाह में बसंत पर्व मनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। खास बात यह है कि इस परम्परा का निर्वाह हिन्दू और मुस्लिम मिलकर करते है।
तेरहवीं पीढ़ी :
दरगाह के शाही कव्वाल अशरार हुसैन का कहना है कि आज उनकी तेरहवीं पीढ़ी दरगाह में बसंत उत्सव की परम्परा निभा रही है। वे अपने मरहूम पिता इकराम हुसैन के साथ बचपन में ही दरगाह में बसंत के गीत गा रहे है। 74 वर्ष की उम्र होने की वजह से उनका स्वास्थ्य खराब रहता है, इसलिए इस परम्परा को अपने पुत्रों को सौंप दिया है।
(एस.पी. मित्तल)  (15-02-2016)
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