Wednesday 30 March 2016

आखिर उत्तराखंड में ये क्या हो रहा है? चार दिन में हाईकोर्ट के तीन फैसले। बदलते फैसलों से भी राजनीतिक अस्थिरता।


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माना जाता है कि नेताओं की वजह से राजनीतिक हालात बिगड़ते हैं। उत्तराखंड में भी गत 18 मार्च को जब कांग्रेस सरकार के 9 विधायकों ने बगावत की तो राजनीतिक अस्थिरता हो गई। विवाद तब और बढ़ा जब विधानसभा अध्यक्ष ने 9 विधायकों की सदस्यता को ही रद्द कर दिया। राजनेता तो अपने स्वार्थों की वजह से कुछ भी कर सकते हैं, १लेकिन यह उम्मीद की जाती है कि लोकतंत्र के सबसे मजबूत और निष्पक्ष तंत्र न्यायपालिका तो सोच समझ कर निर्णय देती है। लेकिन उत्तराखंड हाईकोर्ट के गत चार दिनों में जो तीन फैसले आए हैं, उसमें राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ गई है। अब 30 मार्च को नैनीताल हाईकोर्ट की खंडपीठ ने फैसला दिया है कि 31 मार्च को विधानसभा में हरीश रावत की सरकार का शक्ति परीक्षण नहीं होगा। हाईकोर्ट ने कहा कि अब इस मामले में आगामी 6 अप्रैल को सुनवाई होगी, तभी कोई आदेश दिया जाएगा। यानि 31 मार्च को होने वाला शक्ति परीक्षण 6 अप्रैल तक के लिए टल गया। असल में केन्द्र सरकार को नैनीताल हाईकोर्ट की डबल बैंच में इसलिए जाना पड़ा क्योंकि सिंगल बैंच ने 29 मार्च को आदेश दिया कि हरीश रावत 31 मार्च को विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करें। यह आदेश तब दिया गया, जब 27 मार्च को ही केन्द्र सरकार उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू कर चुकी थी। यानि संवैधानिक तौर पर हरीश रावत की सरकार वजूद में नहीं थी। यदि राष्ट्रपति शासन के दौरान हरीश रावत विधानसभा में बहुमत सिद्ध करते तो यह आजाद भारत का शायद पहला मामला होता। इस संवैधानिक संकट को टालने के लिए ही केन्द्र सरकार को नैनीताल हाईकोर्ट जाना पड़ा। हालांकि सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने भी यह जानना चाहा, जब राज्यपाल ने 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने के लिए कहा था तो फिर एक दिन पहले ही राष्ट्रपति शासन क्यों लगाया गया? कोर्ट में उपस्थित अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी विधायकों की खरीद फरोख्त का हवाला दिया। कांग्रेस, भाजपा और केन्द्र सरकार के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन जिस तरह से चार दिन में हाईकोर्ट के तीन फैसले सामने आए हैं, उससे अनेक सवाल खड़े होते हैं। राजनेताओं की वजह से ही अनेक बार न्यायपालिका और विधायिका आमने-सामने हो जाते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है। उम्मीद है कि लोकतंत्र के दोनों महत्त्वपूर्ण पाए कोई ऐसा रास्ता निकालेंगे, जिसमें विवाद न हो। लोकतंत्र की रक्षा करने का दायित्व इन दोनों संस्थाओं पर है। हालांकि फिलहाल उत्तराखंड में संवैधानिक संकट टल गया है, लेकिन 6 अप्रैल को जब सुनवाई होगी, तो दोनों ही पक्षों को बीच का रास्ता निकालना होगा। फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि उत्तराखंड में राजनेताओं की वजह से जो कुछ भी हो रहा है, उससे उत्तराखंड के नागरिकों का ही नुकसान है। उत्तराखंड के लोगों ने गत वर्ष बाढ़ की त्रासदी झेली है, ऐसे में उत्तराखंड में विकास कार्य करवाना ज्यादा जरूरी है।  अगले वर्ष तो विधानसभा के चुनाव होने ही हैं। 

(एस.पी. मित्तल)  (30-03-2016)
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